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बंद
सवाल यह है कि किसी बात के विरोध का यह तरीका अगर स्वीकार्य है तो सिर्फ और सिर्फ इस शर्त पर कि सब कुछ शांतिपूर्ण और अनुशासन में होगा। लेकिन देश भर में ऐसे बंद कैसे और किस प्लानिंग के साथ अंजाम दिए जाते हैं यह हम जानते हैं। लेकिन बेबस हैं हम। यह बंद आखिर हमारे लिए ही तो हो रहा है।
इस बंद में जिस तरह की तस्वीरें सामने आ रही है, वह निहायत ही शर्मनाक है। ट्रेन और बस से उतरते यात्रियों के साथ बिना बात की मारपीट और बदतमीजी! आखिर किसने इन बंद समर्थकों को यह हक दिया कि सरेआम किसी के साथ अशोभनीय-असम्मानजनक व्यवहार करें? निहत्थे और निर्दोष यात्री कुछ समझे-संभले उससे पहले चाँटों की बरसात! कितना भद्दा लगता है यह सोचकर कि हमारे अपने ही देश में हम सुरक्षित नहीं। हमारी अपनी कोई इच्छा या जरूरत नहीं। हमारी अपनी कोई जिंदगी नहीं। हमें जो भी करना है किसी और के द्वारा रचे गए सत्ता के घिनौने खेल को देखते हुए करना है। यह कैसे शुभचिंतक हैं हमारे जो हमारे हक के लिए लड़ रहे हैं लेकिन हमसे ही लड़ रहे हैं। हमें ही पीट रहे हैं। बसों में तोड़फोड़, आगजनी, हाथापाई? ये कैसी असभ्यता पर उतर आते हैं तथाकथित 'सामाजिक' लोग?
बंद में जो वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं वह हैं यात्री। जिनकी ना जाने कौन-सी ऐसी मजबूरी थी कि घर से निकलना ही पड़ा है। हम नहीं समझते ऐसी किसी भी मजबूरी को। संवेदनशीलता के स्तर पर हमारी सोच वहाँ तक पहुँचती ही नहीं है जहाँ तक पहुँचना मानवीय होने की पहली शर्त है। परेशान होने वाले अन्य वर्ग में शामिल होते हैं महिलाएँ, बच्चे और मरीज।
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"In Arithmetic of Love one plus one equals everything and two minus one equals nothing"
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